संविधान सभा की तीन वर्षों की बहस में तीन सौ से ज्यादा सदस्यों ने भारत के भविष्य का राजनीतिक पंचांग तैयार किया। पहली बार स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान में स्थापित हुई। प्राचीन भारतीय व्यवस्था में शासक ही न्याय प्रमुख था। शासन प्रमुख के रूप में लिए गए निर्णयों और व्यवस्था के कार्यों की जवाबदेही लेते हुए उसे न्यायोन्मुख आत्म समीक्षा करनी होती थी। उसे नैतिक बनाए रखने के लिए गुरुकुल, आश्रम, राजमहल और दरबार में निष्पक्ष लोगों की उपस्थिति होती थी। मौजूदा संविधान पूरी तौर पर यूरो-अमेरिकी आधुनिक अवधारणा पर आधारित है। ब्रिटिश शासनकाल में प्रशासक ही निचले स्तर पर न्याय अधिकारी होते थे। कालांतर में न्याय पालिका और कार्यपालिका को अलग किया गया। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट संविधान-जनित होने के बावजूद संविधान की व्याख्या करने और जरूरत पडऩे पर विधायिकाओं के अधिनियमों को निरस्त करने में समर्थ हैं। उन्हें अमेरिकी नस्ल के मूल अधिकारों के भारतीय रूपांतरण पर विचार करते हुए अंगरेजी पद्धति के अनुतोश और राहत देने के अधिकार हैं। संविधान में हाईकोर्ट का क्षेत्राधिकार सुप्रीम कोर्ट से ज्यादा विस्तृत है। यह बात स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने कही है। सुप्रीम कोर्ट केवल मूल अधिकारों के क्षतिग्रस्त होने पर हस्तक्षेप करता है। वैधानिक, नागरिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आधारों पर हाई कोर्ट को अधिकारिता होती है। इन संविधान न्यायालयों को गठित करने का मकसद यही था कि आजाद देश में यह महसूस हो कि मनुष्य ज्यादा गरिमामय हो गया है। वह ब्रिटिश काल का दोयम दर्जे का भारतीय नहीं रहा। वह हर सरकारी अन्याय के खिलाफ अदालतों का दरवाजा खटखटा सकता है। अदालतें संविधान की आयतों के अनुरूप फौरी न्याय भी देंगी। हमारे संविधान निर्माता अतीन्द्रीय, भोले और निस्पृह लोग थे। उन्हें नहीं मालूम था कि उनके वंशज दुष्ट-परंपरा के होंगे।
भारतीय शासक अपनी जनता को शायद अंगरेजों से भी ज्यादा हेय दृष्टि से देखेंगे। जनता के विवेक को लाठियों से हकालेंगे, गोलियां भी बरसाएंगे। थानेदार से लेकर पुलिस महानिदेशक तक घूसखोरी, शराबखोरी और वेश्यावृत्ति भी करेंगे। सेनानायक शहीदों के परिवारों के मकान हड़प लेंगे। बहादुरों के शवों के ताबूतों की खरीद में घोटाले होंगे। नेता जानवरों का चारा खा जाएंगे। खदानों के पट्टे औने-पौने में मंत्री बेच देंगे। ठेकेदार चूहों की तरह देश को खोखला कर देंगे। देश को लाखों करोड़ रुपयों के कर्जों और नीलामियों में फंसा देंगे। देश का सोना विदेशों में गिरवी रख देंगे। नेता और उद्योगपति दुनिया में सबसे ज्यादा भ्रष्ट होकर स्विस बैंकों में काला धन रखने में विश्व कीर्तिमान बना देंगे। गोरी चमड़ी के देशों में देश की अस्मिता को बेचने की प्रतियोगिताएं आयोजित करेंगे। भारतीय भाषाओं को चपरासियों, बाबुओं और जानवरों की कहेंगे। सांसद सवाल पूछने के लिए घूस खाएंगे। नेता सपरिवार हर राष्ट्रीय आयोजन में छीना झपटी करेंगे। न्यायाधीश अश्लील हरकतें तक करेंगे और राज्यपाल भी। इसके बाद भी आदमखोर भद्रजनों का यह गिरोह मूंछें मुड़वाकर मूंछों पर ताव देगा।
स्वतंत्र न्याय पालिका की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने स्वस्थ परंपराएं विकसित की। कुछ विश्व-स्तरीय प्रणम्य न्याय निर्णय हुए। बहुत से उच्च कुलीन न्यायाधीश इंग्लैंड में ही पढ़े थे। उनकी तात्विक समझ बर्तानवी विधि में होने के बावजूद उन्होंने देशज तर्कशीलता के अच्छे उदाहरण प्रस्तुत किए। फिर प्रयोगधर्मी दौर आया, जब ब्रिटिश विधि में पारंगत न्याय विदों ने विशेषकर संपत्ति के अधिकार को अहमियत देनी शुरू की। इससे नवधनाड्य उद्योगपतियों और भारतीय कंपनियों को फायदा हुआ। इंदिरा युग में राष्ट्रीयकरण का नारा इसलिए बुलंद हुआ। संविधान को ही बुनियादी तौर पर परिवर्तित करने के प्रयत्न हुए। आपातकाल में लेकिन सुप्रीम कोर्ट की मुश्कें कस दी गईं। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वी.वाई.चंद्रचूड़ ने बाद में आत्मग्लानि के साथ यह स्वीकार भी किया कि न्याय पालिका आपातकाल में खौफजदा हो गई थी।
देश और सुप्रीम कोर्ट एक साथ मिलकर कई अवरोधों से लड़ चुके हैं। जस्टिस कृष्णण अय्यर, पी.एन. भगवती, के.के. मै.यू, सगीर अहमद, चिन.पा रेड्डी आदि ने कई मोर्चों पर जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के मानदंड स्थिर किए। फिर वैश्विक बाजारवाद का शिकंजा भारत पर कसता गया। राजीव गांधी की हत्या महज र्दुघटना, इत्तफाक या संयोग नहीं है। उनके बाद ऐसी विचारधारा सस्थामूलक हुई जो वैश्विक बाजार के अनुकूल है। भारत का संविधान अब दरकिनार है। संसद को धीरे-धीरे अप्रासंगिक बनाया जा रहा है। मतदाता उपभोक्ता में तब्दील हो रहा है। संस्कृति बाजारवाद में विक्रय योग्य वस्तु है। राजनेता यूरो-अमेरिकी अर्थनीति के दलाल बनते लग रहे हैं। ऐसी भयावह स्थिति में आशा की एक किरण सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट में जनता को दिखाई देती है। हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आपको कुछ अनुदार अवधारणओं में बद्धमूल कर लिया है। वह असमंजस के कटघरे में है। इनमें से कुछ इस तरह हैं:-
1. राज्य के नीति विषयक मामलों में न्यायालय को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
2. न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिकाओं के कारण न्याय प्रशासन प्रभावित हुआ है। अतएव इस पर पुनर्विचार जरूरी है।
3. अदालतें सरकार के ऊपर अपीलीय न्यायालय नहीं हैं। इसलिए कई मुद्दों पर उन्हें अनदेखी करनी चाहिए।
4. अवधारणाओं और परंपराओं के लिहाज से भारतीय अदालतों को अंगरेजी विधि के सिद्धांतों का अनुसरण करना चाहिए।
5.न्यायालयों का कार्य कार्यपालिका की भूमिका को ले लेना नहीं है। उन्हें आत्मसंतुलन बनाए रखना चाहिए।
बहुत सी अनुदार ब्रिटिश अवधारणाओं के चलते न्यायालयों ने अपनी भूमिकाओं का परिष्कार, संशोधन या विस्तार नहीं किया है। देश में लाखों टन अनाज सड़ रहा हो और सुप्रीम कोर्ट केवल हल्की सी चेतावनी दे कि ऐसा अनाज गरीबों में मुफ्त बांट देना चाहिए। देश के कारखाने, नदियों, हवा, शहरों और जंगलों में प्रदूषण की मितली उगल रहे हों। कभी-कभार किसी समाजचेता व्यक्ति के कहने पर कुछ अदालती निर्देश जारी हों। बाद में लेकिन यह भी कह दिया जाए कि ऐसे व्यक्ति जनहित के बदले अपना प्रचार प्रसार चाहते हैं। अंबानी के पक्ष में फैसला हो। न्यायाधीश का बेटा अंबानी का वकील हो। प्रदेश का मुख्यमंत्री न्यायाधीश के परिवार को करोड़ों की भूमि कौडिय़ों के मोल दे दे। देश के मुख्य न्यायाधीश उस मामले को सुनें जिससे संबंधित पक्षकार कंपनी में उनके शेयर हों। देश के मुख्य न्यायाधीश के सरकारी आवास को उनके डेवलपर बेटे अपनी कंपनी का पंजीकृत मुख्यालय लिखें। न्यायाधीश मनोरंजन के नाम पर सार्वजनिक जगह पर बैठकर धींगा मस्ती करें। हाईकोर्ट के न्यायाधीश अपने गृह राज्य में निजी आवास के लिए सरकारी मदों से खरीदी करें। लाखों रुपयों के सरकारी धन को निजी खाते में रखने वाले न्यायाधीश भी हैं। दलाल आलीशान होटलों में रुकें। न्यायाधीश से लगातार बातें करें। रिकॉर्ड उपलब्ध हो जाने पर समाचार प्रकाशित करने वाली मीडिया को अदालत की
अवमानना करने के नोटिस जारी किए जाएं।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश खुले आम कह चुके हैं कि उच्च न्यायालयों के बीस प्रतिषत न्यायाधीश तो भ्रष्ट हैं ही। न्यायाधीशों के बच्चे और रिश्तेदार उन्हीं हाई कोर्ट में प्रेक्टिस कर रहे हैं। वेतन, भत्ते और सुविधाएं बढ़ाने को लेकर अदालतें खुद आदेश पारित कर लें। न्यायाधीशों के बच्चे और बीवियां सरकारी वकील बना दिए जाएं और नामी गिरामी कंपनियों के भी।
आम जनता से जुड़े उन फौजदारी मामलों तक में न्यायालय जमानत नहीं देते जिनसे ज्यादा गंभीर मामलों में अंगरेज जज टेनिस खेलते-खेलते जमानत दे देते थे। उन पार्टियों में भी न्यायाधीश जाते हैं, जहां संदिग्ध चरित्र के लोग आते हैं। कई न्यायाधीशों की भाषा और कानूनी समझ को लेकर यह प्रमाणपत्र नहीं दिया जा सकता कि उनकी नियुक्ति ठीक-ठाक हुई है। कभी-कभार न्यायाधीश सभ्य-पुरुषों को हड़का भर देते हैं। जनता की स्मृति क्षीण होती है। उसे पता नहीं होता कि बाद में क्या हुआ। आर्थिक घोटालों, अवैध प्लॉट आवंटनों और गरीबों की जमीनें हड़पने में भी न्यायाधीशों की संलग्नता होती है। एक राजा के प्रकरण के बहाने सुप्रीम कोर्ट को इतिहास रचने का अवसर मिला है। जंगलों
की सुरक्षा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, चिकित्सा कॉलेजों में भर्ती जैसे कई प्रकरणों में सुप्रीम कोर्ट मॉनिटरिंग कर ही रहा है। अयोग्यों का मसला भी उसके पाले में है। जस्टिस भगवती ने मेनका गांधी वाले मामले में व्यक्ति की आजादी के नए आयाम गढ़े थे। केशवानंद भारती के प्रसिद्ध मुकदमे में छह बनाम सात के बहुमत से सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के बुनियादी ढांचे को समझाने की कोशिश की है। शिक्षा के मसले को लेकर ग्यारह सदस्यीय संविधान पीठ ने अधिकारों का स्थिरीकरण किया है। रतलाम नगरपालिका वाले प्रकरण में जस्टिस कृष्णा अय्यर ने मानवीय गरिमा के नए फलक को ढूंढा है। आपातकाल लगाने के फैसले की वैधता को जांचने वाली पीठ में अल्पमत के फैसले के लेखक न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना ने मानव अधिकारों की अद्भुत मीमांसा की है। मौजूदा सुप्रीम कोर्ट में भी कई न्यायाधीश हैं जो न्यायिक इतिहास के नए परिच्छेद लिख सकते हैं। उम्मीद है कि कर्तव्य बोध, नैतिक शक्ति और सत्य के प्रति आग्रह की अंत:सलिला बहती रहे।
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के अस्तित्व के बावजूद कार्यपालिकाओं को गुमान हो गया है कि अदालतें उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। अधिकारी खुलेआम अवैध आदेश पारित कर पीडि़त व्यक्ति से कहते हैं कि वह अदालत चला जाए। जब तक कार्यापालिका को यह अहसास रहेगा कि अदालतें उसके साथ हैं, तब तक लोकतंत्र के ऊपर विनाश के बादल मंडराते रहेंगे। एक बार इतिहास न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिकाओं की वापसी के युग में फिर आ सकता है। यह भी है कि कई न्यायाधीश वक्त के साथ नहीं चल पा रहे हैं। उनका ज्ञान संकीर्ण, दृष्टिकोण बासी, समझ पूंजीपतियों की तरह है। लोकतंत्र में तो सुप्रीम कोर्ट को भी जनता की नुमाइंदगी करनी होती है। मौजूदा सुप्रीम कोर्ट के कई न्यायाधीश अपनी पीड़ा के साथ ऐसा इजहार भी करते रहते हैं। हवाला कांड का निर्णय सुधारात्मक न्यायिक प्रहार बनकर याद रहेगा। शब्दों से खिलवाड़ वकीलों और न्यायालयों
का शगल नहीं होना चाहिए। वक्त आ गया है जब भारतीय न्यायपालिका को आगे बढ़कर वृहत्तर भूमिका में इस सवाल का जवाब देना होगा।
कनक तिवारी
वरिष्ठ अधिवक्ता,
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय
मो. 94252-20737, 99815-08737
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