Aug 7, 2007

न्यायालय अवमान : नये दृष्टिकोण की आवश्यकता

द्वारा
माननीय न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू
न्यायाधीश, भारतीय उच्चतम न्यायालय

न्यायालय अवमान का विषय बहुधा ही विवेचन एवं टिप्पणी करने के लिये आता है । कुछ अवमान विधि में सुधार करने की बात करते हैं ।अन्य पूर्ण रुप से न्यायालयों की इस शक्ति का उन्मूलन करने का सुझाव देते हैं, इत्यादि । इस विषय पर व्यापक संख्या में पुस्तकें और लेख हैं ।

यहां प्रयास, मौलिक सिद्धांतों की जांच करके विषय को नया द्यिष्टकोण प्रदान करने का है ।

लोकतंत्र में आधारभूत सिद्धांत यह है कि लोग सर्वोच्च है । इसका तात्पर्य यही है कि सभी प्राधिकारी, चाहे वे न्यायाधीश, विधायक, मंत्री, नौकरशाह, इत्यादि हों, लोगों के सेवक है ।

इस प्रकार भारतीय संविधान की उद्देशिका यह अधिकथित करती है :

‘हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण सम्प्रभुता-सम्मान समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक न्याय
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म उपासना की स्वतन्त्रता:
प्रास्थिति एवं अवसर की समानता
उपाप्त कराने के लिये तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता सुनिश्चित करने वाला भाई-चारा बढाने के लिये,

दृढ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवम्बर, १९४९ ई. को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित एवं आत्म समर्पित करते हैं ।‘

ये शब्द हमारे संविधान के गणतन्त्रात्मक लक्षण पर बल देते हैं और यह दर्शित करते हैं कि सभी शक्तियां अन्ततोगत्वा लोगों से उद्भूत होती है ।

यदि एक बार लोकप्रिय प्रभुत्व-सम्पन्नता की इस अवधारणा द्य्ढतापूर्वक ध्यान में रखी जाती है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत के लोग मालिक है और भारत में सभी प्राधिकारी (न्यायालयों को शामिल करके) उनके सेवक हैं । निश्चित रुप से, मालिक को सेवक की आलोचना करने का अधिकार है, यदि सेवक उचित ढंग से कार्य नहीं करता या व्यवहार नहीं करता । इसका तार्किक रुप से यही अर्थ होना प्रतीत होता है कि लोकतंत्र में लोगों को न्यायाधीशों की आलोचना करने का अधिकार है । तब यह पूछा जा सकता है कि न्यायालय अवमान अधिनियम क्यों होना चाहिये, जो कुछ सीमा तक तो लोगों को न्यायाधीशों की आलोचना करने या अन्य कुछ करने से निवारित करता है, जिन्हें न्यायालय अवमान माना जाता है ? यह एक ऐसा प्रश्न है, जो सूक्ष्म परीक्षण की अपेक्षा करता है और इसका ही यहां प्रयास किया जाता है ।

नि:संदेह संविधान को लोगों द्वारा निर्मित किया गया है । परन्तु, इस लिखत ने ही न्यायालयों को सृजित किया है, जिसका तात्पर्य यही है कि लोग अपनी बुद्धिमत्ता में यही महसूस किया कि ऐसे फोरमों (या फोरम) को होना चाहिये, जहां लोगों के बीच विवादों का निपटारा किया जा सके और लोगों की शिकायतों का शान्तिपूर्ण ढंग से प्रतितोष प्रदान किया जा सके ।

यह चीजों की प्रकृति में होता है कि प्रत्येक समाज में लोगों के बीच विवाद और लोगों की शिकायतें होंगी । यदि इन विवादों का समाधान करने के लिये और शान्तिपूर्वक ढंग से इन शिकायतों का प्रतितोष प्रदान करने के लिये कोई फोरम नहीं है, तो उनका समाधान हिंसात्मक रुप से बमों, बन्दुआें, चाकुआें एवं लाठियों से किया जायेगा । अत: न्यायपालिका ही इसके लिये उत्कृष्ट सुरक्षा-वाल्व है । शिकायत रखने वाले व्यक्ति की सुनवायी करके और स्थापित विधिक सिद्धान्तों के आधार पर उसे निर्णय प्रदान करके, न्यायालय उस व्यक्ति को शान्त करता है, अन्यथा शिकायत का उग्रता से विस्फोट हो सकता है । इस प्रकार, न्यायपालिका समाज में शान्ति बनाये रखती है और कोई भी समाज इसके बिना नहीं चल सकता ।

इस द्यिष्टकोण से अवलोकन करने पर, कोई भी व्यक्ति तत्काल ही इसका अनुभव कर सकता है कि लोकतंत्र में न्यायालय अवमान शक्ति का प्रयोजन केवल न्यायालय को कार्य करने के लिये समर्थ बनाना ही हो सकता है । शाक्ति मालिक (लोगों) को अपने सेवक (न्यायधीशों) की आलोचना करने से निवारित करने के लिये नहीं है, यदि पाश्चात्वर्ती उचित रुप से कार्य नहीं करता या अवचार कारित करता है ।

संविधान का अनुच्छेद १९ (१) (क) सभी नागरिकों को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है । परन्तु अनुच्छेद १२९ एवं २१५ उच्चतर न्यायपालिका को न्यायालय अवमान की शक्ति प्रदान करते हैं और यह शक्ति अनुच्छेद १९ (१ (क) द्वारा प्रदत्त स्वतन्त्रता को सीमित करती है । कैसे इन दोनों प्रावधानों में सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिये ?

मेरी राय में, यदि एक बार यह स्वीकार कर लिया जाता है कि भारत एक लोकतंत्र है और यह कि लोकतंत्र में लोग सर्वोच्च होते हैं, तो सामंजस्य अनुच्छेद १९ (१) (क) के अधीन स्वतंत्र वाक् एवं अभिव्यक्ति के नागरिकों के अधिकारों को प्रमुख होना और अवमान की शक्ति को अधीनस्थ होना मानकर प्रभावी किया जा सकता है । अन्य शब्दों में, लोग स्वतंत्र हैं और लोगों को न्यायाधीशों की आलोचना करने का अधिकार है, किन्तु उन्हें न्यायपालिका के कार्यो को असम्भव या अत्यधिक कठिन बनाने की सीमा तक नहीं जाना चाहिये ।

इस प्रकार मेरी राय में यह अवधारित करने का परीक्षण, कि क्या कार्य न्यायालय अवमान की कोटि में आता है या कि नहीं, यही है : यह यह न्यायाधीशों के कार्य को असम्भव या अत्यधिक कठिन बना देता है ? यदि यह कठिन नहीं बनाता, तो यह न्यायालय अवमान की कोटि में नहीं आता, यदि वह कठोर आलोचना भी हो ।

हमारी अवमान विधि में से अधिकतर ब्रिटिश शासन से जारी है । परन्तु, ब्रिटिश शासन के अधीन, भारत स्वतंत्र एवं लोकतन्त्र नहीं था और लोग सर्वोच्च नहीं थे, बल्कि ब्रिटिश शासन ही सर्वोच्च थे । उस समय ऐसा कोई संविधान भी नहीं था, जिसमंे अनुच्छेद १९ (१) (क) की तरह का प्रावधान अन्तर्विष्ट होता । तब कैसे उन दिनों की विधि आज भी लागू हो सकती है ?

तीन उच्च न्यायालयों (इलाहाबाद, मद्रास एवं दिल्ली) में न्यायाधीश के रुप में, मैंने बहुधा खुले न्यायालय में अधिवक्ताओं को यही बताया है कि मेरी आलोचना न्यायालय के भीतर या उसके बाहर अपने हृदय की सन्तुष्टि तक उतनी कर सकते थे, जितनी वे चाहें, किन्तु मैं न्यायालय अवमान की कोई कार्यवाही प्रारंभ नहीं करुंगा । या तो आलोचना सहीं थी, जिस मामले में मैं उसके योग्य था या वह मिथ्या थी, जिस मामले में मैं उसकी उपेक्षा करुंगा । कुछ लोग तो जानबूझकर न्यायाधीश को न्यायालय अवमान कार्यवाही प्रारम्भ करने के लिये प्रकोपित करते हैं, उनका सम्पूर्ण खेल ही प्रचार-प्रसाद प्राप्त करने का होता है । ऐसे व्यक्तियों से संव्यवहृत होने का सर्वोत्तम ढंग उनकी उपेक्षा करना ही हो होगा और इस प्रकार उन्हें उस प्रचार-प्रसार से वंचित करना होगा, जिसकी वे वास्तव में इप्सा कर रहे हैं । मैं बहुधा न्यायालय में यही अधिकथित करता हू कि अवमान शक्ति केवल ‘पात्र’ (योग्य व्यक्ति) पर प्रयुक्त किये जाने वाला एक ‘ब्रम्हास्त्र’ है और मैं आपको उसका ‘पात्र’ नहीं मानता ।

मैं यह भी अधिकथित करता था कि एकमात्र स्थिति, जहां मुझे कुछ कार्यवाही करनी होगी, यही थी कि यदि न्यायाधीश के रुप में मेरा कार्य असम्भव बनाया गया हो, उदाहरणार्थ यदि कोई व्यक्ति न्यायालय के मंच पर कूद पड़ता है और न्यायालय की पत्रावती को साथ लेकर लागने लगता है या न्यायालय में शोर मचाना था चीत्कार करना जारी रखता है अथवा पक्षकार या साक्षी को धमकी देता है । कुल मिलाकर, मुझे वही करार्य करना है, यदि मैं अपने वेतन को न्यायोचित ठहराने की इच्छा रखता हूँ ।

‘अवमान विधि- क्या इसका अत्यधिक विस्तार हो रहा है ?’ विषय पर जयपुर में १.१२.२००१ को दिये गये व्याख्यान में, वरिष्ठ भारतीय अधिवक्ता, श्री फली नरीमन ने कहा ‘न्यायालय को कलंकित करने’ का अपराध अस्थिर अधिकारिता है, जिसमें कोई नियम नहीं है और कोई अवरोध नहीं है । मैं उस व्याख्यान से सम्पूर्ण लम्बे परिच्छेद को उत्कथित कर सकता है :

‘जेरेनी बेन्थम (सैद्धान्तिक न्यायविद्) ने ही सामान्य विधि को ‘श्वान-विधि’ के रुप में चित्रित किया था ।‘

‘जब आपका कुत्ता ऐसा कुछ करता है, तब आप उससे सम्बन्ध समाप्त कर लेते हैं । (उन्होंने १८२३ में यह लिखा था) अत: तब तक आप प्रतिक्षा करते हैं, जब तक वह उसे करता है और इसके पश्चात् आप उसे उसके लिये पीटते हैं । यह वह ढंग है, जिसके द्वारा आप अपने कुत्ते के लिये विधि निर्मित करते हैं ।और यही वह ढंग है, जिसके द्वारा न्यायाधीश आपके और मेरे लिये विधि निर्मित करते हैं ।‘

आंग्ल-सैक्सन न्यायशास्त्र में विगत में इंग्लैण्ड में और विगत तथा वर्तमान में भारत में दोनों में ही न्यायालय अवमान की विधि श्वान-विधि से अधिक कुछ नहीं है, कम नहीं है । ऐसा कोई नियम, कोई अवरोध-कोई स्पष्ट परिस्थितियां नहीं हैं, जब न्याय-प्रशासन को अवमान में लाया जाता है । निर्णय सामान्य नीरस बातों के साथ विस्तारित किया जाता है, जो सम्पादक, व्याख्याकार, अधिवक्ताआें एवं सामान्य जनता के सदस्यों को अल्प मार्गनिर्देश देते हैं, अवमान विधि का यह भाग यद्यपि आवश्यक है, फिर भी स्वतंत्र अभिवाक् के लिये एक विद्यमान धमकी है । यह विशिष्ट न्यायाधीश (या न्यायाधीशों) के विवेकाधिकार पर बहुत कुछ छोड़ता है । और उस मसय विनिश्चय यह निरोधात्मक भावना उत्पन्न करते हैं कि जो व्यक्ति न्यायालय को कलंकित करता है, शायद उसकी भी प्रतिष्ठा अन्ततोगत्वा परिणाम को प्रभावित करती हो ।

एक पदस्थ केैबिनेट मंत्री ने १९८८ में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के विरुद्ध व्यापक एवं अनुचित टिप्पणी की थी । उन्होंने कहा था :

‘गोलकनाथ की तरह जमींदारों (वह गोलकनाथ मामले पर बोल रहे थे) ने भी भारत के उच्चतम न्यायालय के सिवाय सम्पूर्ण देश में कहीं भी सहानुभूतिपूर्ण श्रृंखला उत्पन्न नहीं कर पायी थी और बैंक संचालकों, इस देश की सम्भ्रान्त संस्कृति के प्रतिनिधियों, जिनका सामर्थ्यपूर्वक उद्योगपतियों, स्वतंत्रता के लाभार्थियों द्वारा समर्थन किया गया था, ने कपूर के मामले (१९७०) में उच्चतम न्यायालय के मध्यक्षेप से अत्यधिक प्रतिकार प्राप्त किया था । समाज विरोधी तत्वों, फेरा उल्लंघनकर्ताओ, वधू जलाने वालों और प्रतिक्रियावादियों के एक सम्पूर्ण समूह ने उच्चतम न्यायालय में अपना प्रतितोष प्राप्त किया है ।‘
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इसके पश्चात् मन्त्री ने यह भी कहा चूंकि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की सम्पन्नता के लिये प्रकट सहानुभूति थी (जो असम्पन्न के विरुद्ध है), इसलिये उन्होंने अभिव्यक्ति प्रतिकार का उसी ढंग में निर्वचन किया, जिसमें उन्होंने किया था, यह स्पष्ट रुप से लाक्षणिक हेतुक है ।

और फिर भी दो न्यायाधीशों की पीठ (डूडा के मामले, ए.आई.आर. १९८८ एस.सी १२०८ में) उसे अभिमुक्त क र दिया था । हम आपके समक्ष उसे उद्धृत करेंगे, जिसे खण्डपीठ ने अधिकथित किया :

‘मूलगांवकर के मामले, ए आईआर १९७८ एस सी ७२७, में न्यायमूर्ति, कृष्णा अय्यर के निर्णय द्वारा स्थापित अवमान विघि की प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुये (वे उदर प्रवृत्ति से निर्णय दे रहे थे), मन्त्री के व्याख्यान को उसके समुचित परिप्रेक्ष्य में पढा जाना चाहिये और जब इस तरह पढा जाता है, तो वह न्याय प्रशासन के प्रति न्याय प्रशासन की कुख्याति या क्षति उत्पन्न नहीं करती थी । मंत्री न्यायालय के अवमान के दोषी नहीं है ।‘

प्रशंसनीय, उत्कृष्ट, स्वतंत्र व्याख्यान को मान्य ठहराया गया था । परन्तु, कोई भी व्यक्ति यह आश्चर्य व्यक्त करने में सहायक नहीं कर सकता कि क्या माननीय महोदय इतना उदार तब भी हुये होते, यदि आलोचना केै बिनेट मंत्री से कम महत्वपूर्ण व्यक्ति द्वारा की गयी होती ।

पुन: जब महत्वपूर्ण मान्य व्यक्ति, श्री मोहम्मद यूनुस, अध्यक्ष भारतीय व्यापार मेला प्राधिकरण ने, जो उस समय प्रधानमंत्री के अत्यधिक निकट होने के लिये ज्ञात थे, जेहोवाह साक्षी के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा यह अवधारित करने वाले परिदत्त निर्णय की आलोचना की थी कि ईसाई के विशिष्ट पन्थ के लिये राष्ट्रगान का गाना अनिवार्य नहीं था । श्री मु. युनुस ने यह कहा था कि इस न्यायाधीश (न्यायमूर्ति, चिन्नप्पा रेड्डी) को ‘या तो भारतीय या न्यायाधीश कहलाने का कोई अधिकार नहीं है ।‘

व्यक्तियों के संगम ने, जिसे कान्सेन्सियस-ग्रुप कहा जाता है, इस निर्देश की इप्सा करते हुये याचिका दाखिल की थी कि श्री यूनुस की अवमान के लिये निन्दा की जानी चाहिये । परन्तु, न्यायमूर्ति, चिन्नप्पा रेड्डी के साथ प्रतिदिन बैठने वाले उनके निकट सहयोगी ने भी स्वयं को श्री मोहम्मद यूनुस से इस तकनीकी आधार का स्पष्टीकरण मांगने में आचनक शक्तिहीन पाया था कि जब महान्यायवादी से अपनी स्वीकृति देने के लिए याचीगण द्वारा सम्पर्क किया गया, तब उन्होंने उससे इन्कार कर दिया और महासॉलिसीटर ने भी आपत्ति की थी, देखें कान्सेस्यिस-ग्रुप बनाम मोहम्मद यूनुस एवं अन्य, ए आई आर १९८७ एस सी १४५१.

वे यह जानते थे कि किसी अवमान के लिये स्वप्रेरणा से नोटिस जारी करने की शक्ति सामान्य थी (महान्यायवादी या महासॉलिसीटर) के अधिदेश पर निर्भर नहीं थी) फिर भी उन्होंने इसका आश्रय न लेने का ही चुनाव किया था, यद्यपि उच्चतम न्यायालय के पदस्थ न्यायाधीश को ऐसे व्यक्ति के रुप में वर्णित किया गया था, जो भारतीय होने के लिये उपयुक्त नहीं है, न्यायाधीश होने के लिये उपयुक्त नहीं है ।

फिर भी पश्चात्वर्ती मामले में (जो भी प्रकाशित है) जो इतने महत्वपूर्ण वादकर नहीं थे, यह कहने के लिये दोषी निर्णीत किया गया था कि न्यायाधीश राष्ट्रद्रोही था । जब प्रकीर्ण आवेदन की सुनवायी करने वाली भारतीय उच्चतम न्यायालय की पीठ ने यह अधिकथित किया था कि वह यह विचार करने की इच्छुक थी कि विशिष्ट मामले को उस पीठ के समक्ष जाना चाहिये, जिसने पहले इसमें कुछ आदेश पारित किये थे, तब सामान्य जनता का अपारिणामिक सदस्य, मोहम्मद जहीर खान (वादकर) ने न्यायालय को उंची आवाज में इस प्रकार सम्बोधित किया था :

‘या तो वह राष्ट्रद्रोही है या न्यायाधीश राष्ट्रद्रोही है ।‘

‘नोटिस जारी की गयी तथा वादकार को न्यायालय अवमान का दोषी पाया गया था और उसे एक मास तक का कारावास भुगतने का दण्ड दिया गया था, देखें, मोहम्मद जहीर खान बनाम विजय सिंह एवं अन्य, १९९२ सप्ली (२) एस सी सी ७२, ये उदाहरण अपने न्यायाधीशों का उपहास करने या पूर्व विनिश्ययों की आलोचना करने के लिये नहीं दिये गये हैं । यह केवल सजीव ढंग से यही स्पष्ट करने के लिये है कि अवमान अधिकारिता के इस पहलू की वास्तविक प्रकृति अस्थिर, अकाल्पनिक-विभिन्न मामलों में और उसी न्यायालय में विभिन्न न्यायाधीशों द्वारा भिन्न-भिन्न ढंग से प्रयोग किये जाने योग्य है (और इसीलिये वास्तव में प्रयोग किया गया है) ।
और विक्षुब्धकारी प्रवृत्ति अभी भी जारी है ।‘

अवमान विधि से सम्बन्धित मामलों की अनिश्चित स्थिति के बारे में श्री नरीमन की टीका-टिप्पणी न्यायोचित होनी प्रतीत होता है ।

उदाहरण के लिये पी.एन. डूडा बनाम पी. शिवशंकर, ए आई आर १९८८ एस सी १२०८ में, सारांशत: तत्कालीन संघ विधि मंत्री, श्री पी.शिव शंकर द्वारा दिया गया व्याख्यान तत्कालीन केरल के मुख्यमंत्री श्री नन्बूबदीपाद द्वारा दिये गये व्याख्यान के समान था । लेकिन, श्री नम्बूदरीपाद को तो न्यायालय अवमान का दोषी होना निर्णीत किया गया था (देखें ए आई आर १९७० एस सी २०१५) किन्तु श्री शिव शंकर को नहीं । क्या विधि में अनिश्चितता नहीं है ?

इस पर ध्यान दिया जा सकता है कि श्री नम्बूदरीपाद ने अपने व्याख्यान में न्यायाधीशों पर समृद्ध लोगों के पक्ष में एवं निर्धनों के विरुद्ध पक्षपाती होने का अभियोग लगाया था । सारांशत: यह वहीं अभिकथन था, जिसे श्री शिव शंकर द्वारा किया गया था (जिसके व्याख्यान का उद्धरण उपर निर्दिष्ट है) ।

श्री नरीमन एवं अन्य यह कहने में पूर्ण रुप से सही है कि विधि में निश्चितता होनी चाहिये, न कि अनिश्चितता । कुल मिलाकर, नागरिकों को यह जानना चाहिये कि वह कहां पर स्थित है ।

मेरी राय में, न्यायालय अवमान विधि में अनिश्चितता दो कारणों से थी : (१) न्यायालय अवमान अधिनियम, १९५२ में, अवमान को परिभाषा नहीं थी । (२) जब परिभाषा न्यायालय अवमान अधिनियम, १९७१ द्वारा (धारा २ के द्वारा) पुन:स्थापित की भी गयी, तो ऐसी कोई परिभाषा नहीं थी, न्यायालय को कलंकित करने को क्या गठित करता है या न्याय के अनुक्रम पर क्या प्रतिकूल प्रभाव डालता है या क्या हस्तक्षेप करता है । जिसे प्रारम्भ में कलंकात्मक माना जा सकता था, उसे आज कलंकात्मक नहीं माना जा सकता और जिसे पहले न्याय के अनुक्रम पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले या हस्तक्षेप करने के रुप में माना जा सकता था, उसे आज इस तरह से नहीं माना जा सकता ।

इस लेख में, अवमान विधि में इस अनिश्चितता का निराकरण करना ही इप्सित है और यह विषय पर गहन विश्लेषण की अपेक्षा करता है ।

अवमान शक्ति के बारे में मत को पहले इंग्लेण्ड में न्यायमूर्ति, विल्मोट द्वारा १७६५ में उस निर्णय में अधिकथित किया गया था, जिसे वास्तव में कभी भी परिदत्त हीं नहीं किया गया था ।(आर बनाम आल्मन) उस राय में, न्यायमूर्ति विल्मोट ने यह सम्परीक्षण किया था कि न्यायालयों में यह शक्ति उनके प्राधिकारों का समर्थन करने के लिये थी और यह उनके आधार एवं संस्थान के साथ समकालीन थी और न्याय के न्यायालय का आवश्यक लक्षण था । इसके पश्चात् उक्त सिद्धान्त का अनुसरण उत्तरवर्ती न्यायालयों द्वारा न केवल इंग्लैण्ड में, बल्कि अन्य देशों में भी किया गया था ।

इस प्रकार, यह अधिकथित किया गया था कि अवमान की शक्ति की अपेक्षा न्यायालय की गरिमा को बनाये रखने और उसके प्राधिकार का समर्थन करने के लिये की गयी थी ।

परन्तु, कब से न्यायालय का यह प्राधिकार एवं गरिमा आयी है? इंग्लैण्ड में यह सम्राट से आरम्भ हुयी है । न्यायिक कार्य सम्प्रभुता सम्पन्न कार्य है । सम्राट ही न्याय का स्रेात था और पहले तो वहीं स्वयं मामलों का विनिश्चय करता था । केवल बाद में जब सम्राट के पास कई अन्य कार्य (सैन्य, प्रशासनिक, इत्यादि) हो गये थे, तब उसने अपने प्रत्यायोजिती को, जिसे न्यायाधीश कहा जाने लगा था, न्यायिक कृत्य प्रत्यायोजित कर दिये ।

इस प्रकार, राजतंत्र में न्यायाधीश वास्तव में सम्राट के प्रत्यायोजित कृत्यों का ही प्रयोग करता है और इसके लिए वह उसी गरिमा तथा सम्प्रभुता की अपेक्षा करता है जैसे कि सम्राट को अपनी प्रजा से अपनी आज्ञा का पालन कराने के लिये रखनी चाहिये ।

स्थिति लोकतंत्र में पूर्णतया भिन्न हो जाती है, जिसमें लोग ही सर्वोच्च है, न कि सम्राट । यहां न्यायाधीश लोगों द्वारा न कि सम्राट द्वारा स्वयं को प्रत्यायोजित प्राधिकार प्राप्त करते हैं ।

हम इसका अल्प गहराई से विश्लेषण कर सकते हैं । राजतंत्र मंे सम्राट ही सर्वोच्च सत्तावान होता है, जबकि लोग, उसकी प्रजा होने के नाते निम्न सत्तावान् होते हैं । चूंकि न्यायाधीश वास्तव में सम्राट के प्रत्यायोजित कृत्यों का निर्वहन कर रहे होते हैं, इसलिये उन्हें उसी सम्प्रभुता तथा गौरव की आवश्यकता होती है, जैसे कि सम्राट को अपनी प्रजा से आज्ञा-पालन को सुनिश्चित कराने की आवश्यकता थी ।

दूसरी तरफ, लोकतंत्र में, लोग ही सर्वोच्च होते हैं और इसलिये वे ही सर्वोच्च सत्तावान है, जबकि सभी राज्य प्राधिकारी (न्यायधीशों को शामिल करके) लोगों के सेवक होने के नाते निम्न सत्तावान् है ।

अत:, लोकतंत्र में न्यायधीश को अपने प्राधिकार का समर्थन कराने या सम्प्रभुता अथवा शान का प्रदर्शन करने की आवश्यकता नहीं है । उनके प्राधिकार लोक विश्वास से उत्पन्न हांेगे और यह उनके स्तर से उनके आचरण, उनकी सत्यनिष्ठा, निष्पक्षता, ज्ञान एवं सरलता का परिणाम होगा । न्यायाधीशों द्वारा लोकतंत्र में किसी अन्य समर्थन की अपेक्षा नहीं है और उनके लिये सम्प्रभुता तथा प्राधिकार का प्रदर्शन करने की आवश्यकता भी नहीं है ।

उक्त अभिव्यक्त मत को वास्तव में अब इंग्लैण्ड में भी स्वीकार कर लिया गया है । जैसा कि लार्ड सालमॉन द्वारा ए.जी. बनाम बी. बी.बी. (१९८१) ए सी ३०३ : (१९८०) ३ साल ई आर १६१ (१७०),में सम्परीक्षण किया गया है:

‘नि:सन्देह, शब्दों न्यायालय अवमान का ऐतिहासिक आधार है, किन्तु यह फिर भी भ्रामक नहीं है । इसका उद्देश्य न्यायालयों की गरिमा का संरक्षण करना नहीं, बल्कि न्याय प्रशासन का संरक्षण करना है ।‘

यही वह बहुमुल्य शोध-पत्र है, जिसे इस लेख में प्रतिपादित करना इप्सित है । लोकतंत्र में अवमान शक्ति न्यायालय को केवल कार्य करने में समर्थ बनाने के लिये ही है, न कि अपने प्राधिकार का समर्थन कराने एवं गरिमा को बनाये रखने के लिये ।

आल्मन के मामले में, जिसे हम पहले ही निर्दिष्ट कर चुके हैं, प्रतिवादी ने लार्ड मैन्सफील्ड, माननीय मुख्य न्यायमूर्ति पर अनौपचारिक ढंग से, मनमाने ढंग से और अविधिक ढंग से कार्य करने का अभियोग लगाने वाले पम्फलेट प्रकाशित किये थे । न्यायमूर्ति, विल्मोट ने इस प्रकार सम्परीक्षण किया था :

‘लोगों के मस्तिष्क में सभी न्यायिक अवधारणाआें से सामान्य असन्तोष उत्प्रेरित होता है और उनके मस्तिष्क को उनका अनुपालन करने के लिये अनुपयुक्त बनाता है और जब की विधि के प्रति मनुष्यों की निष्ठा मूल रुप से अस्थिर हो जाती है, तो यही अत्यधिक घातक होता है और न्याय का अत्यधिक परिसंकटमय अवरोध होता है और मेरी राय में यह किसी अन्य अवरोध की अपेक्षा, चाहे जो भी हो, अधिक तीव्र और तात्कालिक प्रतितोष की अपेक्षा करता है, न कि गैर-सरकारी व्यक्तियों के रुप में न्यायाधीशों के लिये, बल्कि इस कारण कि वे अनुक्रम है, जिसके द्वारा सम्राट या न्याय लोगों को दिया जाता है । निष्पक्ष होने के लिये और इस प्रकार सार्वभौमिक विचार होने के लिये दोनों ही आत्यन्तिक रुप से आवश्यक है ।‘
(देखें, मिलर्स कन्‍टेंम्‍ट आफ कोर्ट, तृतीय संस्‍करण, पृष्‍ट 568)

न्यायमूर्ति, विल्मोट की राय १७६५ में अभिव्यक्त की गयी थी । क्या इसे आज इंग्लैण्ड में न्यायालय अवमान की विधि होना कहा जा सकता है । यद्यपि इंग्लैण्ड में कोई लिखित संविधान नहीं है और इसीलिये अनुच्छेद १९ (१) (क) की तरह कोई मूल अधिकार भी नहीं है, न्यायालय अवमान का वह पुराना द्यिष्टकोण भी आज इंग्लैण्ड में पूर्णतया परिवर्तित हो गया है और अब अंगीकृत द्यिष्टकोण लार्ड सालमॉन का द्यिष्टकोण है, जैसा कि उपर वर्णित है ।

लार्ड एटिकन ने यह अधिकथित किया है कि न्याय बन्द कमरे का गुण नहीं है तथा उसकी संवीक्षा की जानी चाहिये और सामान्यजन की कृत टिप्पणियों का सामना करना चाहिये । वास्तव में आलोचना होने से वह केवल न्यायपालिका को उसे कमजोर करना तो दूर रहा उसे मजबूत बनाता है ।

जैसा कि आर. बनाम पुलिस आयुक्त, (१९६८) २ क्यू बी १५०, में लार्ड डेनिंग द्वारा सम्परीक्षण किया गया है :

‘मुझे तुरन्त यह कहना है कि हम अपनी स्वयं की गरिमा को कायम रखने के लिये साधन के रुप में इस अधिकारिता का कभी भी प्रयोग नहीं करेंगे । उसे अपेक्षाकृत निश्चित आधार पर आधारित होना चाहिये । न तो हम उन्हें दबाने के लिये उसका प्रयोग करेंगे, जो हमारे विरुद्ध बोलता है । हम आलोचना से भयभीत नहीं होते हैं और न ही हम उससे नाराज होते हैं । क्योंकि अपेक्षाकृत उससे भी कुछ अधिक महत्वपूर्ण चीज दांव पर लगी है । यह स्वयं वाक् की स्वतंत्रता से कम नहीं है ।

प्रत्येक व्यक्ति का संसद मंे या उसके बाहर, प्रेस में या प्रसारण पर सार्वजनिक हित के मामलों पर निष्पक्ष सामान्य स्पष्ट टीका-टिप्पणी करने का अधिकार होता है । जो टिप्पणी करते हैं, वे निष्ठा से उन सभी चीजों से संव्यवहृत हो सकते हैं, जिसे न्यायालय में किया जाता है । वे यह कह सकते हैं कि हमने त्रुटि की है और हमारे विनिश्चय त्रुटिपूर्ण है, चाहे वे अपील के अध्यधीन हों या नहीं । वह सब जो हम पूछना चाहेंगे, यही है कि जो हमारी आलोचना करते हैं, वे इसका स्मरण रखेंगे कि हम अपने पद की प्रकृति से, उनकी आलोचनाआें का उत्तर नहीं दे सकते । हम सार्वजनिक संविवाद की जांच नहीं कर सकते । उस पर भी सबसे कम तो राजनैतिक संविवाद की । हमें स्वयं अपना ही समर्थन करने के लिये अपने आचरण पर विश्वास करना चाहिये ।‘

न्यायाधीश का सर्वोत्तम कवच एवं शास्त्रगार सत्यनिष्ठा, निष्पक्षता एवं ज्ञान की उसका ख्याति है । इमानदार न्यायाधीश को शायद ही अपने न्यायिक जीवन में अवमान की शक्ति का प्रयोग करने की आवश्यकता होगी । अत्यधिक विरल और अतिरेक मामलों में ही इस शक्ति का प्रयोग किये जाने की आवश्यकता होगी और वह भी केवल न्यायाधीश को कर्तव्य करने के लिये समर्थ बनाने हेतु न कि अपनी गरिमा या सम्प्रभुता को बनाये रखने के लिये ।

कभी-कभी एक इमानदार एवं विद्वान न्यायाधीश की भी अन्यायोचित ढंग से आलोचना की जाती है । परन्तु, इमानदार न्यायाधीश की आलोचना करने वाले एक ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध, सैकड़ों लोग तत्काल ही उसकी प्रतिरक्षा में सामने आयेंगे (न्यायाधीश द्वारा ऐसी प्रतिरक्षा के लिये कहे बिना भी) । तब क्यों न्यायाधीशों को आलोचना से विचलित होना चाहिये या भयभीत होना चाहिये विशिष्ट रुप से तब, जब हम लोकतंत्र में रह रहे हों ? जब तक न्यायाधीश को कार्य करने की अनुज्ञा दी जाती है, तब तक उसके लिये सर्वोत्तम अनुक्रम आधारहीन आलोचना की उपेक्षा करना है (परन्तु, इमानदारीपूर्ण और सही आलोचना पर ध्यान देना है) ।

मुझे स्मरण है कि जब मैं मद्रास उच्च न्यायालय का मुख् न्यायमूर्ति था, तब न्यायालय के दो माननीय न्यायाधीश (जिनका मैं अत्यधिक सम्मान करता हूँ) एक दिन भोजनावकाश के दौरान मेरे कक्ष में आये । वे अत्यधिक विचलित एवं विक्षुब्ध लग रहे थे । स्पष्ट रुप से किसी ने न्यायालय में उनके विरुद्ध कुछ अभियोग लगाते हुए इश्तहार वितरित किये थे । मैंने इश्तहारों का अवलोकन किया और इसके पश्चात् उनसे पूछा । क्या आपका अन्तर्विवेक स्पष्ट है ? उन्होंने कहा स्पष्ट है । इसके पश्चात् मैं हँसा और उनसे इश्तहार की उपेक्षा करने के लिये कहा, अन्यथा उनका रक्तचाप बए जायेगा । जब मैंने यह कहा , तब वे भी हंसने लगे, इश्तहार फाड़ दिये अरौर उन्हें रद्दी की टोकरी में फंेक दिया । मैंने उनसे कहा कि यह केवल न्यायाधीश का व्यावसायिक परिसंकट था और लोकतंत्र में तो लोग सभी प्रकार की चीजें कहते हैं, जिन्हें न्यायाधीश को तब तक उनकी उपेक्षा करना सीखना चाहिये, जब तक उसका अन्तर्विवेक स्पष्ट हो ।

‘अमेरिकन जूरिस्प्रूडेन्स’ (१९६४ द्वितीय संस्करण, खण्ड १७, पृष्ठ ६) में यह अधिकथित किया गया है :

‘न्यायालय अवमान को न्यायालय के प्राधिकार, न्याय या गरिमा की निन्दा करने के रुप में परिभाषित किया गया है । सामान्य बोलचाल में, जिसका आचरण विधि के प्राधिकार एवं प्रशासन के प्रति असम्मान या अवमानना उत्पन्न करने के लिये प्रवृत्त हो, अवमान का दोषी है.... । न्यायालय के अवमान को किसी ऐसे आचरण के रुप में भी वर्णित किया गया है जो विधि, न्यायिक कर्तव्य निर्वहन में न्यायालय या न्यायिक अधिकारी के प्राधिकार एवं गरिमा के विरुद्ध अपराध गठित करता है ।‘

सम्यक् सम्मान सहित, यह परिभाषा लोकतंत्र में आधुनिक समय में व्यापक रुप से उचित है । यह पुरातन एवं अप्रचलित ब्रिटिश अवमान विधि का विस्तार है, जो उस समय उत्पन्न हुआ था, जब ब्रिटिश साम्राज्य सर्वोच्च था और न्यायाधीश उसके अभिकर्ता थे ।

लोकतंत्र में, यह कुछ व्यक्तियों की आलोचना नहीं है, जो न्यायाधीश को अपकीर्ति में लाता हो या उसके प्राधिकार को अस्थिर करता हो, यह उसका आचरण (या अपेक्षाकृत अवचार) है, जो ऐसा कर सकता है । यदि न्यायाधीश इमानदार और सही है (और लेग न्यायाधीश की सत्यनिष्ठा के बारे में अत्यन्त शीघ्रता से जानते है), तो अपनिर्देशित और आधारहीन आलोचना की कोई मात्रा उसे अपकीर्ति में नहीं ला सकता या उसके प्राधिकार को स्थिर नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा प्राधिकार व्यापक रुप से जनता के विश्वास से ही आता है ।

अब हम पुन: इस लेख के केन्द्रीय बिन्दु पर वापस आते हैं । मैं यह निवेदन करता हूँ कि न्यायालय अवमान विधि एक बार तब तो निश्चित बनायी जा सकती है, यदि यह स्वीकार कर लिया जाता है कि अवमान शक्ति का प्रयोजन न्यायालय के प्रभुत्व का समर्थन करने या उसकी गरिमा को कायम रखने के लिये नहीं है (क्योंकि इसका स्वत: न्यायाधीश के उचित आचरण से समर्थन होता है तथा इसे कायम रखा जाता है न कि अवमान के प्रयोग की धमकी से ) बल्कि केवल न्यायालय को कार्य करने के लिये समर्थ बनाने हेतु । अवमान शक्ति का प्रयोग केवल विरल एवं अत्यधिक असाधारण स्थिति में ही किया जाना चाहिये, जहां उसका प्रयोग किये बिना न्यायालय के लिये कार्य करना असम्भव या अत्यधिक दुरुह बना दिया गया हो । ऐसी विरल और असाधारण स्थितियों में भी, अवमान शक्ति का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये, यदि उसका प्रयोग करने की केवल धमकी ही पर्याप्त हो ।

नि:संदेह, न्यायालय अवमान अधिनियम, १९७१ की धारा २ (ग) में यह उल्लेख किया गया है कि ऐसा कोई कार्य, जो किसी न्यायालय के प्राधिकार को कलंकित करता है या कलंकित करने के लिये प्रवृत्त है या कम करता है या कम करने के लिये प्रवृत्त है, न्यायालय का अवमान है ।

किन्तु ‘कलंकित करने’ का क्या अर्थ है ? शब्दों का अर्थ एवं हमारा सिद्धान्त समय-अन्तराल के साथ-साथ परिवर्तित होता रहा है । उदाहरण के लिये, कई चीजें जिन्हें पहले अश्लील माना गया था, अब आज अश्लील नहीं माने जाते (उदाहरण के लिये, डी. एच.लॉरेस की पुस्तक-लेडी चैटर्लीज लवर) ।

क्या न्यायाधीश को मुख कहना उसे कलंकित करता है ? इस संबंध में हम स्पाईकेंचर के मामले में हाउस ऑफ लाड्र्स के विनिश्चल को निर्दिष्ट कर सकते हैं, देखें अटार्नी जनरल बनाम गार्जियन न्यूजपेपर, १९८७ (३) ए ई आर ३१६ (एच एल) ।

मामले के तथ्य ये थे कि पूर्व जासूस पीटर राइट ने ब्रिटिश आसूचना अभिकरण एम.१५ में अपनी अवधि के बारे में एक पुस्तक लिखी थी जिसका शीर्षक स्पाईकेंचर था । ब्रिटिश सरकार ने पुस्तक के प्रकाशन को अवरुद्ध करने के लिये इस आधार पर व्यादेश-वाद दाखिल किया, कि पुस्तक की सामग्री गोपनीय थी और राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रतिकूल थी । हाउस ऑफ लार्डस में ३-२ के बहुमत द्वारा व्यादेश मंजूर किया था ।

प्रेस आहत हुआ था । उदाहरण के लिये, द डेली मिरर ने अगले दिन बहुमत के न्यायाधीशों के अस्त-व्यस्त छाया-चित्र और शीर्षक आप मूर्ख के साथ एक महाशीर्ष प्रकाशित किया था ।

श्री नरीमन, जो उस समय इंग्लैण्ड में थे, लार्ड टेम्पलमैन (बहुमत में वरिष्ठ न्यायाधीश) से यह पूछा कि कोई अवमान कार्यवाही क्यों न प्रारम्भ कर दी जाये । लार्ड टेम्पलमैन मुस्कराये और कहा कि इंग्लैण्ड में न्यायाधीश व्यक्तिगत अपमान का संज्ञान नहीं लेते । यद्यपि उन्होंने इस पर विश्वास किया था कि वे मुर्ख नहीं थे, अन्य अपनी राय के हकदार थे ।
इस प्रकार, ‘न्यायालय को कलंकित करना’ की अवधारणा परिवर्तित हो गयी । पूर्व समय में, जिस व्यक्ति ने इंग्लैण्ड में न्यायाधीश को मुर्ख कहा होता, उसे निश्चित रुप से अवमान से दण्डित किया गया होता, आज वह दण्डित नहीं किया जायेगा । और जैसा कि लार्ड सॉलमन ने निर्दिष्ट किया है, इस परिवर्तन का कारण यही है कि आज अवमान शक्ति का प्रयोग न्यायाधीश के प्राधिकार का समर्थन करने के लिये नहीं, बल्कि केवल उसे कार्य करने के लिये समर्थ बनाये जाने के लिये ही किया जाता है । उदाहरण के लिये, यदि व्यक्ति मेरे न्यायालय में बारम्बार शोर मचाता है या सीटी बजाता है और मेरे बारम्बार अनुरोध किये जाने के बावजूद वह ऐसा करना नहीं रोकता, तब स्पष्ट रुप से मुझे कार्य करने के लिये स्वयं को समर्थ बनाने हेतु कुछ कार्य करना होगा । कुल मिलाकर, लोग करों का भुगतान कर रहे हैं, जिससे ही मैं अपना वेतन और परिलब्धियों प्राप्त करता हूँ और मुझे उनके विवादों का विनिश्चय करके इस वेतन को न्यायोचित ठहराना है । इसी तरह, यदि कोई व्यकित किसी दशा में पक्षकार या साक्षी को धमकी देता है, तो मैं निश्चित रुप से कार्यवाही करुंगा । परन्तु, यदि व्यक्ति मुझे मूर्ख कहता है, चाहे न्यायालय के भीतर या उसके बाहर, तब मैं इस एक के लिये कार्यवाही नहीं करुंगा, क्योंकि यह मुझे कार्य करने से निवारित नहीं करता और मैं साधारणतया टीका टिप्पणी की उपेक्षा ही करुँगा या यह भी कहूंगा (लार्ड टेम्पलमैन की तरह) कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी राय का हकदार है । मुल मिलाकर शब्द किसी अस्थि को नहीं तोड़ते महत्व को नष्ट नहीं करते ।

बालोघ बनाम क्राउन कोर्ट एट सेण्ट अलबन्स, ९७५ क्यू बी ३७३, मंे प्रतिवादी ने न्यायालय में न्यायाधीश को यह बताया था आप विनोदहीन स्वचलन है । क्यों आप स्वयं को विनष्ट नहीं कर देते ? लार्ड डेनिंग ने यह कहा था कि ऐसे अपमान को सर्वोत्तम ढंग से घृणा के साथ माना जाता है और कोई कार्यवाही नहीं की थी ।

वास्तव में, इस बारे में मतभिन्नता हो सकती है, कि कौन सा कार्य न्यायाधीश को कार्य करने से निवारित करता है या उसे अत्यधिक कठिन बना देता है । उदाहरण के लिये, सामान्य जनता (अधिवक्ताआें, पत्रकारों, इत्यादि को शामिल करके) टिप्पणी करना या समाचार-माध्यम में लम्बित मामले के बारे में प्रकाशत न्यायाधीश को कार्य करने से निवारित करता है या अत्यधिक कठिन बना देता है ? मैं एक कारण से यह सोचने का इच्छुक हूँ कि यह एैसा नहीं करता । न्यायाधीश को किसी भी स्थिति में अविचिलित एवं अक्षुब्ध बने रहने के लिये धैर्य तथा आन्तरिक शक्ति धारण करनी चाहिये ।

इस संबंध में मैं अपने पितामह स्वर्गीय डॉ. के.एन. काटजू की मृत्यु पर तत्कालीन उ.प्र. के महाधिवक्ता श्री के.एल. मिश्रा द्वारा १९.२.१९६८ को दिये गये व्याख्यान को सन्दर्भित कर सकता हूँ, जिसमें उन्होने कहा था :

‘कम से कम उन दिनों अधिवक्ताआें का कोई भी नेतृत्व विधि को गम्भीर विद्वत्ता और ज्ञान की पृष्ठभूमि के बिना सम्भव ही नहीं था । मैं अत्यधिक हूबहू रुप से १९४३ के बाद में लगभग तीन या चार वर्षो के बन्दीकरण के बाद न्यायालय में उनके आने का स्मरण करता हॅँ, जब वे एडवोकेट्स एसोसिएशन के एक कोने में बैठे हुये थे और इसके पश्चात् कुछ दिनों के भीतर ही न्यायालय से उनकी अनुपस्थिति के समय के दौरान ही ब्रिटिश न्यायालयों द्वारा विनिश्चत किये गये सम्पूर्ण मामलों का अध्ययन किया । मैं उनके निकट गया । उन्होंने मुझे बुलाया और मेरे समक्ष सम्राट खण्डपीठ के निर्णय को रखा, जिसे मैंने तल्लीनता से पढा, निर्णय में मुल्य और कीमत के बीच अन्तर पर अत्यधिक विद्वत्तापूर्ण विवेचन था । डॉ. काटजू ने मुझसे पूछा कौन सी ऐसी महत्वपूर्ण चीज है, जिसे आपने इस निर्णय के बारे में समझा है । मैंने उसे पुन: उनके समक्ष पढा और उन्हें यह बताने का प्रयास किया कि निर्णय का सार क्या था । उन्होंने कहा, नहीं, नहीं निर्णय की तारीख को देखा । इसके पश्चात उन्होंने मुझे उस ओर संकेत किया जहां तारीख थी, जिस तारीख को निर्णय परिदत्त किया गया था, उस विद्वत्तापूर्ण और घनिष्ठतम विचलन के साथ ऐसा उन दिनों के दौरान हुआ था, जब जर्मनी वायुसेना, उसके बमवर्षक स्क्वैड्न व्यापक रुप से इंग्लैण्ड में विनाश और विध्वंश कर रहे थे । उन्होंने मुझसे कहा कि यही विचलन सत्य-न्यायाधीश की मानसिकता को निर्मित करता है ।‘

अब यदि उसके नजदीक गिरने वाले बमों ने सत्य-न्यायाधीश को विक्षुब्ध नहीं किया होता, तो क्यांे उसे केवल ऐसी टिप्पणी या प्रचार-प्रसार करना चाहिये ? न्यायाधीश के कन्धे विचलित या प्रभावित हुये बिना ऐसे टिप्पणी या प्रचार-प्रसार अमान्य करने के बोझ को सहन करने हेतु पर्याप्त सामर्थ्यवान् होने चाहिये ।

इसलिये, मेरी राय में, अभिव्यक्ति न्यायाधीश को कार्य करने से निवारित करने या उसे अत्यधिक कठिन बनाने को साामन्यतया न्यायाधीश के प्रसंग के साथ ही समझा जाना चाहिये, जिसके पास सत्य-न्यायाधीश की भावना से विलग्न, शान्त, धैर्य के साथ और विचलित हुये बिना आधारहीन आलोचना या उसे प्रभावित रखने के प्रयत्न को अमान्य करने के लिये व्यापक पर्याप्त शक्ति हो ।

मेरी राय में एक नया एक आधुनिक लोकतांत्रिक द्यिष्टकोण की, जैसा कि इंग्लैण्ड, संयुक्त-राज्य अमेरिका और राष्ट्र मण्डल देशों में है, जब भारत में भी पुराने कालदोसीय द्यिष्टकोण को दूर भगाने के लिये अपेक्षित है । ‘अवमान अधिकारिता का अब शायद ही इन पश्चिमी देशों में प्रयोग किया जाता हो । इस प्रकार प्रतिरक्षा सचिव बनाम समाचार-पत्र संरक्षक, (१९८५) १ ए सी ३३९ (३४७) में, लार्ड डिप्लॉक ने यह सम्परीक्षण किया कि अवमान की प्रजातियां, जिसमें न्यायाधीशों को कलंकित करना भी शामिल है, वास्तव में इंग्लेैण्ड में अप्रचलित है और उसकी उपेक्षा की जा सकती है ।‘

इसके अतिरिक्त, यह सदैव स्मरण रखा जाना चाहिये कि अवमान-अधिकारिता वैवेकिक-अधिकारिता है । न्यायाधीश अवमान की कार्यवाही करने के लिये बाध्य नहीं है, यदि अवमान वास्तव में कारित भी किया गया हो ।

इसका रुचिकर उदाहरण लार्ड डेनिंग द्वारा उनकी पुस्तक द ड्यू प्रासेज ऑफ लॉ में पृष्ठ६ पर दिया गया है, जहां उन्होंने लिखा है :

‘प्रत्येक सोमवार को सुबह मैं वादकारों को व्यक्तिगत रुप से सुनता हॅँू । मिस स्टोन बहुधा वहां होती थी । उसने हमारे समक्ष आवेदन किया था । हमने उसे नामंजूर किया था । उसकी अपनी पहुंच के भीतर पुस्तक-अलमारी हो, इस तरह से वह अगली पंक्ति में बैठी हुयी थी । वह बटरवर्थ की वर्कमेन्स कम्पेनसेशन केसेज की पुस्तकों में से एक पुस्तक उठायी और उसे हम पर फेंक दी थी । वह न्यायमूर्ति लार्ड डिप्लॉक और मेरे बीच से निकल गयी । उसने एक अन्य पुस्तक उठायी । वह भी अत्यधिक दूरी पर गिरी । उसने कहा मैं गोला-बारुद को समाप्त कर रही हूँ हमने उस पर थोड़ा सा ध्यान दिया । उसने यह आशा की थी कि हम न्यायालय अवमान के लिये-उसकी ओर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान आकर्षित करने हेतु उसे सुपुर्द कर देंगे । जैसा कि उस पर हमने कोई ध्यान ही नहीं दिया, अत: वह दरवाजे की ओर गयी । वह वहां से यह कहते हुये प्रस्थान कर गयी मैं माननीय न्यायाधीशों को क्रोध के अधीन भी उनकी शान्ति पर बधायी देती हूँ ।‘

अन्त करने के पूर्व, मैं डेविड पैनिक की पुस्तक ‘न्यायाधीश’ का यहां सन्दर्भ दे सकता हूँ, जिसमें उन्होंने अधिकथित किया है :

‘कुछ राजनीतिज्ञ एवं कुछ न्यायविद् यह तर्क देते हैं कि न्यायपालिका के बारे में सत्य को बताना अबुद्धिमत्तापूर्ण अथवा कभी-कभी तो परिसंकटमय भी है । संयुक्त राज्य अपीलीय न्यायालय के न्यायमूर्ति, जेरोम फ्रेन्क ने बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से इसकी व्याख्या की थी कि उनको उस सुझाव से थोड़ा सा धैर्य बंधा था या उन्हें उसके प्रति सम्मान था । मैं.... समझने में असमर्थ हूँ कि लोकतंत्र में सरकार की किसी शाखा के कार्यो के बारे में वास्तविकता से सामान्य जनता को परिचित कराना कभी भी बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं हो सकता । सामान्य जनता को शिशु के रुप में मानना सम्पूर्ण रुप से अलोकतान्त्रिक ही है, जो जननिर्मित संस्थाआें की....अपरिहार्य कमियों को स्वीकार करने में असमर्थ है.... । हमारी न्यायिक प्रणाली की उन कमियों का, जिनका उन्मूलन किये जाने योग्य है, उन्मूलन करने का सर्वोत्तम ढंग अपने सभी नागरिकों को यही अवगत कराना है कि कैसे वह प्रणाली अब कार्य करती है । इसलिये, अज्ञानता के माध्यम से हमारे न्यायालयों के लिये सार्वजनिक सम्मान स्थापित करने और उसे बनाये रखने का प्रयास करना त्रुटि है ।‘

इस संबंध में न्यायालय अवमान अधिनियम में हुये नवीनतम संशोधन (न्यायालय अवमान संशोधन अधिनियम, २००६) का सन्दर्भ दिया जा सकता है, जिसने नई धारा १३ (ख) को पुन:स्थापित किया है, जो अधिकथित करती है:

‘न्यायालय, न्यायालय अवमान की किसी कार्यवाही में सत्य से न्यायोचित की वैध प्रतिरक्षा के रुप में अनुमति दे सकता है, यदि उसे यह समाधान हो जाता है कि यह सार्वजनिक हित में है और उक्त प्रतिरक्षा का आश्रय लेने का अनुरोध वास्तविक है ।‘

इस प्रकार, सत्य अब न्यायालय अवमान कार्यवाहियों में प्रतिरक्षा है, यदि वह लोकहित में है और वास्तविक है । यह संशोघन उचित दिशा में है और लम्बे समय से ऐसा किये जाने योग्य था ।

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