रामप्रसाद दूबे
वकील, इलाहाबाद हाईकोर्ट
हाईकोर्ट, सुप्रीमकोर्ट निर्णय करती हैं कि किसी मामले का निस्तारण डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट एक महीने में करें। इसके बाद भी मामलों का संज्ञान लेने में कई महीने लग जाते हैं। सरकार न्यायिक सुधार की बात तो करती है, लेकिन ये बातें केवल कागजों में ही दिखाई पडती है। सरकार चाहे तो लंबित मुकदमों की संख्या में कटौती हो सकती है। हाईकोर्ट, सुप्रीमकोर्ट निर्णय करती है कि किसी मामले का निस्तारण डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट एक महीने में करे। इसके बाद भी मामलों का संज्ञान लेने में कई महीने लग जाते हैं। वादी को फिर से ऑर्डर की कॉपी लेने के लिए अधिकारी के पास दौडा दिया जाता है। एक तरह से मामला फिर सरकारी अधिकारी के पास ही चला जाता है, जिसे बाद में अधिकारी खारिज कर देता है। अगर कोर्ट ने किसी कर्मचारी की बहाली का आदेश पारित किया हो, तो सरकार की मंशा होती है कि इस मामले को लंबे समय तक लटकाकर रखा जाए। मामले को वह निचली अदालत से हाईकोर्ट में लेकर चली जाती है। यह कहकर की मामला ऊपरी अदालत में लंबित है, नियुक्ति पर रोक लगा दी जाती है। यों भी सरकारी मुकदमों की कोई समय सीमा तो निर्धारित होती नहीं। कोर्ट में मुकदमों का बोझ बढता जा रहा है। जितने भी लोक अभियोजक अदालतों से जुडे हैं, उनका आम आदमी से तो साबका पडता नहीं। ऐसे मामलों में अधिकांश सरकारी नियुक्तियां ही होती हैं, हाईकोर्ट या सत्र न्यायालय से तो नियुक्ति के समय सहमति लेने का सवाल ही नहीं उठता। सरकार नियुक्ति कर अदालतों में भेज देती है। ऐसे में अधिकांश ऐसे लोग ही चले आते हैं, जिन्हें न्यायिक प्रक्रिया की ज्यादा जानकारी होती नहीं। इसके कारण केसों की पेंडेसी पर भी असर पडता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट की ही बात करें तो यहां जजों के 140 से ज्यादा पद हैं, लेकिन इस समय केवल 72 जज ही हैं। लखनऊ हाईकोर्ट में इस मामले को लेकर जनहित याचिका भी दायर की गई। इन जजों की नियुक्ति नहीं करने के कारण भी मामलों की संख्या बढती जा रही है। आम आदमी झेल रहा है। अब सरकार सस्ता न्याय लोगों को दिलाना चाहती है, दूसरी तरफ कोर्ट की फीस बढाेत्तरी की जा रही है। एक तरफ तो न्याय जन-जन तक पहुंचाने की बात की जा रही है, दूसरी तरफ सस्ते और सुलभ न्याय की पहुंच से लोगों को दूर किया जा रहा है। जरूरत है कि न्यायिक सुधार को लेकर सरकार की मंशा साफ हो।
देशबंधु से साभार
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ठेठरी खुरमी
फरा