राष्ट्रपति की मर्जी (डॉक्ट्रिन ऑफ प्लेजर) का सिध्दांत कानून के शासन से शासित प्रजातंत्र में नहीं चल सकता। कोर्ट का मत है कि यह सामंतवादी सिध्दांत है जिसकी प्रजातंत्र में कोई जगह नहीं है। किसी भी सरकार और अथॉरिटी को अपनी खुशी के लिए कार्य करने का अधिकार नहीं है
इस डॉक्ट्रीन में स्पष्ट है कि रायपाल अनुच्छेद 156 (1) के तहत पांच वर्ष के लिए राष्ट्रपति की ओर से नियुक्त होता है, इसलिए उसे सिर्फ इस आधार पर नहीं हटाया जा सकता कि वह सत्ता में मौजूद पार्टी के विचारों से भिन्न विचार रखता है। राष्ट्रपति की मर्जी (डॉक्ट्रिन ऑफ प्लेजर) का सिध्दांत कानून के शासन से शासित प्रजातंत्र में नहीं चल सकता। कोर्ट का मत है कि यह सामंतवादी सिध्दांत है जिसकी प्रजातंत्र में कोई जगह नहीं है। किसी भी सरकार और अथॉरिटी को अपनी खुशी के लिए कार्य करने का अधिकार नहीं है। काम सदैव राजनैतिक स्थायित्व के लिए होनी चाहिए। 'डॉक्ट्रिन ऑफ प्लेजर' की सरकारी सेवा क्षेत्र में भी विचारणीय कटौतियां की गई हैं। अनुच्छेद 310 का उप अनुच्छेद 2 तथा अनुच्छेद 311 के उप अनुच्छेद 1 और 2 में प्रभावी तरीके से इस सिध्दांत को कमतर किया गया है। राय का रायपाल केंद्र का कर्मचारी, एजेंट या किसी पार्टी का हिस्सा नहीं होता, वह राय का संवैधानिक प्रमुख होता है। मंत्रिपरिषद और अटॉर्नी जनरल के मामले इससे अलग होते हैं। मंत्रीगण प्रधानमंत्री के चुने हुए व्यक्तिहोते हैं। प्रधानमंत्री और मंत्रियों के बीच विशुध्द राजनीतिक रिश्ता होता है। वहीं अटॉर्नी जनरल और एडवोकेट जनरल का संबंध भी सरकार के साथ मुवक्किल और वकील का होता है। यदि सरकार का उनसे विश्वास उठ जाए या वह ऐसे काम करने लगे जो सरकार की नीति के विरुध्द हों तो उन्हें विश्वास हनन के कारण हटाया जा सकता है। लेकिन रायपाल के मामले में यह आधार कतई उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।
देशबंधु से साभार.
देशबंधु से साभार.
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