Sep 11, 2010

कब पूरी होगी सस्ते इंसाफ की आस

दुर्घटना में मारे गए व्यक्ति के परिजन कर्ज लेकर मुकदमा लडते रहते हैं और जब मुआवजा मिलता है तो उनके हिस्से कुछ खास नहीं आता, क्योंकि मुआवजे की रकम कर्ज चुकाने में चली जाती है। बिल्कुल स्पष्ट और उचित बात है। अगर सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दाखिल करने का न्यूनतम खर्च देखा जाए तो वह भी करीब 10 हजार रुपए बैठता है। मुश्किल से दो जून की रोटी कमाने वाले कर्मचारी के लिए यह आसान नहीं है लेकिन इंसाफ लेने की लडाई में और अपनी रोजी-रोटी बचाने के लिए कई आम लोग सुप्रीम कोर्ट तक अपना मुकदमा लडते हैं। ऐसी परिस्थिति में या तो वह न्याय की आस छोडे या फिर अपनी जमीन-जायदाद बेच कर न्याय की मनुहारी करे। ऐसे में जरूरी है कि न्याय हो भी और न्याय होते भी दिखे। चाहे वह कोई भी न्यायालय हो सुस्पष्ट, सक्षम, निर्भय तथा विधि सिध्दांतो का सही पालन करके ही आम जनता को शीघ्र, सरल एवं संतुष्टिजनक न्याय दिलाया जा सकता है। इससे संबंधित जवाबदेही की बात करें तो सभी राय सरकारों का कर्तव्य है कि वह संविधान में दी गई मर्यादाओं का पालन करते हुए त्वरित न्याय के अपने इस कर्तव्य को निभाए
मु कदमेबाजी की भी अपनी एक आर्थिकी है। क्या अमीर क्या गरीब सभी इसकी शरण में आते हैं। न्याय पाने की इच्छा सभी को अदालत की देहरी तक खींच कर लाती है। जब महंगाई ने जीवन के किसी हिस्से को अछूता नहीं छोडा तो फिर विधि-विधान इससे कैसे बची रह सकती है। इंसाफ भी काफी महंगा हो चुका है। चूंकि मुकदमे की पेंच में समाज का हरेक तपका फंसता है, देखने वाली बात है कि इसका ज्यादा प्रभाव किस वर्ग पर पडता है। देश के सर्वोच्च व्यवसायिक गद्दी पर बैठे अंबानी भाइयों का मुकदमा सभी देख चुके हैं। मामला सुलझाने के लिए दोनों भाइयों ने मुकदमेबाजी में करोडों रुपए स्वाहा किए। यह अलग बात है कि बाद में उन्हें भान हुआ कि ऐसे मसले कोर्ट से ज्यादा अच्छी तरह से आपस में मिल-बैठ कर निबटाए जा सकते हैं। अदालती खर्च पर विराम लगाकर मामला बाहर सुलझाया गया। लेकिन जरा गरीबों के बारे में सोचें। कोई गरीब अपनी कमाई के हिस्से से रोजी-रोटी चलाए या फिर मुकदमेबाजी पर खर्च करे। एक अदना सुनवाई पर हजारों खर्च करने पडते हैं। इस बाबत कह सकते हैं कि सस्ता इंसाफ गरीबों के लिए मुश्किल है। कई विशेषज्ञ तो नक्सलवाद जैसी समस्याओं की जड में महंगे इंसाफ को भी देखते हैं। कई बार कोर्ट इस बात की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट कर चुकी है कि आदिवासी लंबी दूरी की यात्रा कर अगर अदालती कार्रवाई के लिए जाते हैं तो न्याय पाने के अलावा मुकदमे पर होने वाली खर्च की भी चिंता होती है।
उसमें भी अगर तारीख पर तारीख पडते जाएं तो फिर उनके न्याय की आस धूमिल होती जाती है। न्याय पर से उठते विश्वास का एक कारण महंगे खर्च भी हैं। यह अच्छी बात है कि मुफ्त कानूनी सहायता के तहत गरीबों को मुकदमा लडने के लिए वकील तो सरकार देती है लेकिन जमानत की रकम और जमानती धन का इंतजाम हर अभियुक्त को खुद करना पडता है जो गरीबों के लिए आसान बात नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि कैसे हो गरीबों की मुश्किल का हल? इस हल की दिशा में हम सरकार को निष्क्रिय साबित नहीं कर सकते। यह कतई उचित नहीं होगा, क्योंकि पूर्व में ऐसे कई निर्णय लिए गए हैं ताकि गरीबों को जल्दी, सस्ता और सुलभ न्याय मिल सके। मोबाइल अदालतें इसी की ओर एक अच्छी कदम मानी जा सकती है। इसके तहत अदालतों को सुझाव दिया गया कि उनका उद्देश्य ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों के लोगों को जल्द न्याय दिलाना है। धीमी न्याय प्रक्रिया और अदालतों की कमी के कारण लंबित पड़े ढाई से तीन करोड़ मुकदमों को देखते हुए मोबाइल अदालतें बनाने का यह सुझाव बेहद उपयोगी मानी जा सकती है। यह योजना समग्र न्याय दिलाने के यूपीए सरकार की जवाबदेही का हिस्सा है। इसके प्रावधानों को देखें तो केंद्र सरकार का इरादा ग्राम न्यायालय अधिनियम-2008 के तहत पंचायत स्तर पर 5 हजार से यादा अदालतें स्थापित करने का भी है, ताकि ग्रामीण आबादी को उसके दरवाजे पर ही न्याय दिलाया जा सके। इन अदालतों में सरल कानूनी प्रक्रिया अपना कर मुकदमों की सुनवाई 90 दिन के अंदर निबटाई जा सकती है। जहां तक मोबाइल अदालतों की बात है, तो 'कोर्ट ऑन वील्स' नाम की इस योजना में न्यायिक सेवा के अधिकारी एक विशेष ट्रेन से देश के अलग-अलग हिस्सों में जाएंगे। लेकिन इस प्रावधान को लेकर एक उचित सवाल उठाई जा सकती है। सवाल रेलवे ट्रैक के विस्तार की है। देश के कितने ऐसे क्षेत्र हैं जहां रेलवे लाइन तो क्या, कच्ची-पक्की सडक़ें तक नहीं हैं। बाढ क़े दिनों की बात तो छोड ही दें, अमूमन सूखे के दिनों में लोगों को माथे पर गठरी रखे मीलों की यात्रा कर प्रमुख सडक़ मार्ग तक आना पडता है। उन क्षेत्रों में इन मोबाइल कोर्ट का क्या औचित्य? सवाल जायज है। हल हमारे विधि-विधाताओं को ढूंढना है। या तो पहले रेलवे लाइन बिछाएं फिर कोर्ट ऑन व्हील की बात करें। हमें इंतजार करना होगा कि रेलवे लाइन बिछे और उन दूरदराज के क्षेत्रों में कचहरी लगे। बात तो यह हो रही है कि लोक अदालतों और ग्राम न्यायालयों की तरह ही काम करने वाली इन मोबाइल अदालतों से गांव-देहात में रहने वाले गरीबों के मामले उन्हीं के इलाके में निबटाए जाएंगे और तेजी से निबटाए जाएंगे। लेकिन जहां रेलवे की सुविधा ही नहीं, वहां किस बात का त्वरित न्याय। अभी ऐसे इलाकों में रहने वाले लोगों को किसी मुकदमे के सिलसिले में 20-50 किलोमीटर दूर स्थित अदालत में जाना पड़ता है। इससे उनके वक्त और धन, दोनों का नुकसान होता है। इस दौरान उन्हें अपनी खेती-मजदूरी गंवानी पड़ती है। अगर कोई केस लंबा खिंच जाए तो गरीब के खेत-मकान तक बिकने की नौबत आ जाती है। कोर्ट ऑन वील्स की इस योजना से लाखों छोटे-मोटे मुकदमों के निबटारे की गति बढाए जाने की बात हो रही है। लेकिन यह बात तो तभी सार्थक होगी जब इससे संबंधित इंफ्रास्ट्रक्चर की मांगें पूरी की जाएं। इसलिए हमें देखने की जरूरत होगी कि यह योजना कहीं राजनीतिक शिगूफा साबित नहीं हो जाए और इससे सस्ते न्याय की गरीबों की जरूरत में अडंग़ा न लग जाए। हम सुनते आए हैं कि भारतीय विधि सत्यम शिवम, सुन्दरम पर आधारित है। क्या इन तीन शब्दों का पालन आज हो रहा है।
ध्यान देने वाली बात है कि यहां बात वैसे लोगों के इंसाफ की हो रही है जिनके लिए सस्ता इंसाफ आज भी एक दु:स्वप्न ही है। भारतीय विधि में यह बात भी समाहित है कि न्याय में विलम्ब न हो और शीघ्र से शीघ्र न्याय लोगों को प्राप्त हो लेकिन मामालों की लंबी संख्या, अधिवक्ताओं, न्यायाधिशों एवं साक्षियों के समय पर उपस्थित नहीं हो पाने के कारण शीघ्र न्याय का सिध्दांत भी केवल कहने-सुनने की बात हो गई है। जस्टिस डिलेड, जस्टिस डिनाइड। इसका तात्पर्य है न्याय देरी से प्राप्त होना, न्याय को नकारना कहा जाता है लेकिन आज आम जनों के समक्ष ऐसी कई सारी परेशानियां खडी हो जाती हैं जिससे समय से उन्हें न्याय नहीं मिल पाता है। शीघ्र, सस्ता और सुलभ न्याय का सिध्दांत तो ऐसा लग रहा है जैसे दूर की कौडी हो। सस्ते इंसाफ की ओर देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने भी सबका ध्यान खींचा है। उनका कहना है कि मुकदमेबाजी गरीबों के लिए कोई सस्ता विकल्प नहीं है। कोर्ट फीस और वकील की फीस को ध्यान में रखते हुए न्याय तक गरीबों की पहुंच को आसान किया जाना जरूरी है। हालांकि महंगे न्याय का अहसास विधि आयोग को बखूबी है। एक मोटर वाहन दुघर्टना मामले पर अपनी रिपोर्ट में आयोग ने कहा कि दुर्घटना में मारे गए व्यक्ति के परिजन कर्ज लेकर मुकदमा लडते रहते हैं और जब मुआवजा मिलता है तो उनके हिस्से कुछ खास नहीं आता, क्योंकि मुआवजे की रकम कर्ज चुकाने में चली जाती है। बिल्कुल स्पष्ट और उचित बात है। अगर सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दाखिल करने का न्यूनतम खर्च देखा जाए तो वह भी करीब 10 हजार रुपए बैठता है। मुश्किल से दो जून की रोटी कमाने वाले कर्मचारी के लिए यह आसान नहीं है लेकिन इंसाफ लेने की लडाई में और अपनी रोजी-रोटी बचाने के लिए कई आम लोग सुप्रीम कोर्ट तक अपना मुकदमा लडते हैं। ऐसी परिस्थिति में या तो वह न्याय की आस छोडे या फिर अपनी जमीन-जायदाद बेच कर न्याय की मनुहारी करे। ऐसे में जरूरी है कि न्याय हो भी और न्याय होते भी दिखे। चाहे वह कोई भी न्यायालय हो सुस्पष्ट, सक्षम, निर्भय तथा विधि सिध्दांतो का सही पालन करके ही आम जनता को शीघ्र, सरल एवं संतुष्टिजनक न्याय दिलाया जा सकता है। इससे संबंधित जवाबदेही की बात करें तो सभी राय सरकारों का कर्तव्य है कि वह संविधान में दी गई मर्यादाओं का पालन करते हुए त्वरित न्याय के अपने इस कर्तव्य को निभाए। यह सच है कि नई बेंच बनाने में खर्चा होगा, किन्तु विधि आयोग ने स्पष्ट किया है कि- 'यह राय सरकार का कर्तव्य है कि वह नागरिक को सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय दिलाए।' इसलिए अर्थ की व्यवस्था का प्रश्न असंगत सा ही लगता है। जन-जन तक न्याय को सुलभ कराना गांधीजी का स्वप्न था, हम पूरा प्रयास कर राष्ट्रपिता के प्रति अपनी श्रध्दांजलि अर्पित कर सकते हैं।

देशबंधु सं साभार

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