परमाणु दायित्व विधेयक -२०१० ऐसा कानून बनाने का रास्ता है जिससे किसी भी असैन्य परमाणु संयंत्र में दुर्घटना होने की स्थिति में संयंत्र के संचालक का उत्तरदायित्व तय किया जा सके। इस कानून के जरिए दुर्घटना से प्रभावित लोगों को क्षतिपूर्ति या मुआवजा मिल सकेगा। अमेरिका और भारत के बीच अक्टूबर २००८ में असैन्य परमाणु समझौता पूरा हुआ था। इस समझौते को ऐतिहासिक कहा गया था, क्योंकि इससे परमाणु तकनीक के आदान-प्रदान में भारत का तीन दशक से चला आ रहा कूटनीतिक वनवास खत्म होना था। इस समझौते के बाद अमेरिका और अन्य परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों से भारत को तकनीक और परमाणु सामग्री की आपूर्ति तब शुरू हो सकेगी, जब वह परमाणु दायित्व विधेयक के जरिए एक कानून बना लेगा।
कैसे होगी क्षतिपूर्ति? : इस विधेयक के आरंभिक प्रारूप में प्रावधान किया गया है कि क्षतिपूर्ति या मुआवजे के दावों के भुगतान के लिए परमाणु क्षति दावा आयोग का गठन किया जाएगा। विशेष क्षेत्रों के लिए एक या अधिक दावा आयुक्तों की नियुक्ति की जा सकती है। इन दावा आयुक्तों के पास दीवानी अदालत के अधिकार होंगे।
क्या था विवाद? : विधेयक पर विपक्षी दलों ने कई आपत्तियाँ दर्ज की थीं जिसके बाद इसे सरकार ने टालकर इसे संसद की स्थाई समिति को भेज दिया गया था। स्थाई समिति ने अपनी सिफारिशें संसद को दी थी। इसके आधार पर और विपक्षी दलों से हुई चर्चा के आधार पर सरकार विधेयक में आवश्यक प्रावधान कर इसे पास कराया। इतिहास बताता है कि परमाणु दुर्घटनाएँ व्यापक विनाश का कारण बन सकती हैं।
एक विवाद मुआवजे की राशि को लेकर ही था। पहले इसके लिए विधेयक में संचालक को अधिकतम रू. ५०० करोड़ का मुआवजा देने का प्रावधान था। लेकिन, भारतीय जनता पार्टी की आपत्ति के बाद सरकार ने इसे तीन गुना करके रू. १५०० करोड़ करने को मंजूरी दे दी है। सरकार ने कहा है कि वह समय-समय पर इस राशि की समीक्षा करेगी और इस तरह से मुआवजे की कोई अधिकतम सीमा स्थायी रूप से तय नहीं होगी। दूसरा विवाद मुआवजे के लिए दावा करने की समय सीमा को लेकर था। अब सरकार ने दावा करने की समय सीमा को १० वर्षों से बढ़ाकर २० वर्ष करने का निर्णय लिया है।
तीसरा विवाद असैन्य परमाणु क्षेत्र में निजी कंपनियों को प्रवेश देने को लेकर था। कहा जा रहा है कि सरकार ने अब यह मान लिया है कि फिलहाल असैन्य परमाणु क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए खोला नहीं जाएगा और सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम ही इस क्षेत्र में कार्य करेंगे।
विवाद का चौथा विषय परमाणु आपूर्तिकर्ताओं को परिवहन के दौरान या इसके बाद होने वाली दुर्घटनाओं को लिए जवाबदेह ठहराने को लेकर है। विधेयक का प्रारूप आपूर्तिकर्ताओं को जवाबदेह नहीं ठहराता। विवाद का विषय अंतरराष्ट्र्रीय संधि, कन्वेंशन फॉर सप्लीमेंटरी कंपनसेशन (सीएससी) पर हस्ताक्षर करने को लेकर था। यूपीए सरकार ने अमेरिका को पहले ही यह आश्वासन दे दिया है कि वह इस संधि पर हस्ताक्षर करेगा, लेकिन वामपंथी दल इसका विरोध कर रहे हैं।
क्या है हस्ताक्षर का मतलब : सीएमसी एक अंतरराष्ट्र्रीय संधि है, जिस पर हस्ताक्षर करने का मतलब होगा कि किसी भी दुर्घटना की स्थिति में दावाकर्ता सिर्फ अपने देश में मुआवजे का मुकदमा कर सकेगा। यानी किसी दुर्घटना की स्थिति में दावाकर्ता को किसी अन्य देश की अदालत में जाने का अधिकार नहीं होगा। वैसे यह संधि थोड़ी विवादास्पद है, क्योंकि इसमें जो प्रावधान हैं उसकी कोई कानूनी अनिवार्यता नहीं है। उल्लेखनीय है कि सीएसई पर वर्ष १९९७ में हस्ताक्षर हुए हैं, लेकिन दस साल से भी अधिक समय बीत जाने के बाद इस पर अब तक अमल नहीं हो पाया।
क्या इसकी कोई समय सीमा है? : यह भारत का अंदरूनी मामला है कि वह "परमाणु दायित्व विधेयक" को संसद में पारित होने के बाद कब इसे कानून का रूप देता है। लेकिन यह तय है कि असैन्य परमाणु समझौते के तहत परमाणु तकनीक और सामग्री मिलना तभी शुरू हो सकेगी, जब यह कानून लागू हो जाएगा। भारत सरकार नवंबर से पहले इसे कानून का रूप देना चाहती है, ताकि जब अमेरिकी राष्ट्र्रपति बराक ओबामा भारत के दौरे पर आएँ तो भारत पूरी तरह से तैयार रहे।
नई दुनिया से साभार
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