भास्कर न्यूज बिलासपुर
खुलासा
छत्तीसगढ़ के चीफ जस्टिस ने इमरजेंसी के दौरान के खोले राज, प्रसिद्ध कानूनविद् के निजी पत्र को किया सार्वजनिक
- पत्र में इमरजेंसी के दौरान सुप्रीम कोर्ट के कई जजों की कार्यप्रणाली पर उठाए थे सवाल
- सीजे ने जजों से किया आह्वान, जस्टिस खन्ना जैसा बनें
- ट्रेनिंग के समापन पर सीजे का दिया वक्तव्य हुआ ऑनलाइन
प्रदेश के चीफ जस्टिस यतींद्र सिंह को प्रसिद्ध वकील ननी पालकीवाला ने १३ जनवरी १९९७ को लिखे गए पत्र में साफगोई से कहा था कि इमरजेंसी के दौरान सुप्रीम कोर्ट के कई जजों में नैतिक साहस नहीं था। इस वजह से ही उन्होंने इमरजेंसी के केस में पैरवी नहीं की थी। सीजे ने यह खुलासा जजों को दिए गए लेक्चर में किया। उन्होंने पालकीवाला के पत्र को पहली बार सार्वजनिक किया, जिसमें लिखा था कि तब सुप्रीम कोर्ट में ऐसे जजों की बेंच थी, जो सरकार के पक्ष में किसी भी तरह का फैसला दे सकती थी।
चीफ जस्टिस यतींद्र सिंह ने नए जजों से जस्टिस एचआर खन्ना जैसा जज बनने का आह्वान किया। इमरजेंसी में जस्टिस खन्ना के एक फैसले ने उन्हें दूसरे जजों की तुलना में ज्यादा फेमस किया। देश के १० राज्यों से शहर आए जजों के ट्रेनिंग प्रोग्राम के समापन पर उन्होंने इमरजेंसी के दिनों के उदाहरणों से कानून का शासन और अदालतों की भूमिका बताई। सीजे ने कहा कि उस समय देश के अधिकांश हाईकोर्ट की भूमिका सुप्रीम कोर्ट से बेहतर थी। शेषत्नपेज ९
इमरजेंसी के दिनों से समझा जा सकता है कि कानून का शासन किसे नहीं कहते। ऐसा अंग्रेजों के शासन के दौरान भी नहीं हुआ, जब पुलिस, ब्यूरोके्रसी सहित नागरिकों के सभी अधिकार छीन लिए गए थे। झूठे आरोपों पर लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई। आरोप निराधार होने के बाद भी अदालतों ने जमानत याचिकाएं मंजूर नहीं की। कई को जमानत मंजूर होने के बाद भी रिहा नहीं किया गया। उन्होंने बताया कि किस तरह मीसा के जरिए लोगों को संविधान से मिली आजादी और जीवन के अधिकार छीन लिए गए थे। उस दौरान अदालतों ने अपनी भूमिका नजरअंदाज कर इमरजेंसी लगाने वालों की मदद की।
ननी पालकीवाला से पूछा था, केस क्यों नहीं लड़ा
इमरजेंसी लगाने में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एडीएम जबलपुर विरुद्ध शिवकांत शुक्ला के मामले में दिए गए फैसले का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस मामले में पैरवी नहीं करने को लेकर सीजे ने इलाहाबाद में अपने वकालत के दिनों में सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील रहे ननी पालकीवाला को पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने पालकीवाला से इस केस की पैरवी नहीं करने की वजह पूछी थी। १२ दिसंबर १९९६ में लिखे गए पत्र का पालकीवाला ने एक माह के भीतर जवाब दिया।
कौन थे ननी पालकीवाला
ननी पालकीवाला को 20वीं शताब्दी के सबसे बड़े वकीलों में गिना जाता है। उनकी जीवनी पर एक पुस्तक नानी ए. पालकीवाला-ए लाइफ प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक को एम. वी. कामथ ने लिखा है। पालकीवाला ने बहुत सारे महत्वपूर्ण पदों जैसे अटार्नी जनरल, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तक का पद ठुकरा दिया। वे भारत सरकार की तरफ से अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में वकील रहे, पर सरकारी पद के तौर पर उन्होंने मात्र अमेरिका के राजदूत बनने का पद स्वीकार किया, जो उन्हें आपातकाल के बाद 1977 में दिया गया था। पालकीवाला ने अपना पूरा पैसा दान में दे दिया।
पालकीवाला ने कहा..
इमरजेंसी के दिनों से समझा जा सकता है कि कानून का शासन किसे नहीं कहते। ऐसा अंग्रेजों के शासन के दौरान भी नहीं हुआ, जब पुलिस, ब्यूरोके्रसी सहित नागरिकों के सभी अधिकार छीन लिए गए थे। झूठे आरोपों पर लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई। आरोप निराधार होने के बाद भी अदालतों ने जमानत याचिकाएं मंजूर नहीं की। कई को जमानत मंजूर होने के बाद भी रिहा नहीं किया गया। उन्होंने बताया कि किस तरह मीसा के जरिए लोगों को संविधान से मिली आजादी और जीवन के अधिकार छीन लिए गए थे। उस दौरान अदालतों ने अपनी भूमिका नजरअंदाज कर इमरजेंसी लगाने वालों की मदद की।